वर्ष 2018 के बाद यह पहली बार है जब भारत में मानसून सामान्य से कम रहा है। इस साल जून से सितंबर तक, भारत में 82 सेंटीमीटर बारिश हुई, जो ‘सामान्य’ समझे जाने वाले 89 सेंटीमीटर से तकरीबन छह फीसदी कम है। अप्रैल के शुरू में, इस बात के पर्याप्त संकेत थे कि ‘अल नीनो’ की वजह से मानसून कमजोर रहेगा। मध्य एवं पूर्वी प्रशांत महासागर के चक्रीय उष्णन (सिक्लिकल वॉर्मिंग) से भारत, खासकर उत्तर-पश्चिम भारत, में बारिश में अमूमन कमी आती है। वर्ष 2019 और 2022 के बीच, भारतीय मानसून पर इसकी उलटी परिघटना यानी शीतन (कूलिंग) ‘ला नीना’ का काफी असर पड़ा। ला नीना को कभी-कभी सामान्य से ज्यादा बारिश से जोड़ा जाता है। इन मापदंडों के आधार पर, 2023 में सामान्य मानसून की उम्मीद कम थी। मगर, इस साल मानसून का अनुभव बहुत ही अलग किस्म का रहा। देश के नौ फीसदी हिस्से में ‘ज्यादा’ बारिश हुई, 18 फीसदी में ‘कम’ और बाकी देश में ‘सामान्य’ बारिश हुई। एक तरफ तो मानसून के दूसरे सबसे महत्वपूर्ण महीने अगस्त में सामान्य से एक-तिहाई कम बारिश दर्ज की गयी, तो दूसरी तरफ उत्तर भारत के कई राज्य, जहां न्यूनतम बारिश की उम्मीद थी, बार-बार हुई रिकॉर्ड बारिश के बाद बाढ़ से त्रस्त रहे। मसलन, जुलाई में चंडीगढ़, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में असाधारण रूप से भारी बारिश हुई, जिसका नतीजा बाढ़ और भूस्खलन रहा। कई शहर कई दिनों तक बाढ़ की गिरफ्त में रहे। अगस्त में हिमाचल प्रदेश में बादल फटने की घटना हुई। यहां उल्लेखनीय है कि तेज बारिश की ये घटनाएं तथाकथित पश्चिमी विक्षोभ की वजह से हुईं। पश्चिमी विक्षोभ भूमध्य-सागरीय क्षेत्र से आने वाले बाह्य-उष्णकटिबंधीय (एक्स्ट्रा-ट्रॉपिकल) तूफान होते हैं और इनसे सामान्यत: मानसून में बड़ी भूमिका निभाने की उम्मीद नहीं की जाती है। इस तरह, ये मानव गतिविधियों से होने वाले उष्णन के व्यापक असर की निशानियां हैं।
इन सबके उलट, महाराष्ट्र में सूखे जैसे हालात थे। छत्तीसगढ़, बिहार और कर्नाटक में पानी को लेकर भारी दबाव की स्थिति की खबरें आयीं। कर्नाटक के मामले में, कावेरी नदी के पानी के बंटवारे को लेकर पड़ोसी तमिलनाडु के साथ उसका विवाद गंभीर हो गया। भारत के मौसम विभाग ने अक्टूबर से दिसंबर तक ‘सामान्य’ पूर्वोत्तर मानसून और पश्चिमोत्तर एवं दक्षिण प्रायद्वीपीय भारत के बड़े हिस्सों में ‘सामान्य से लेकर सामान्य-से-अधिक वर्षा’ की भविष्यवाणी भी की है। दक्षिण भारत के कई हिस्सों में अधिक बारिश के संकेत हैं। स्थान और समय के आधार पर मानसून की भिन्नता इस जरूरत को दोहराती है कि एक ज्यादा सुदृढ़ बुनियादी ढांचे के लिए निवेश किये जाने की जरूरत है। यह वैश्विक जलवायु की अनुमान से परे अनिश्चितताओं, जोकि लगातार बढ़ रही हैं, से निपटने के लिए हर मौसम के लिए उपयुक्त बीमा भी साबित हो सकता है। हाल के वर्षों में पैटर्न पूर्वानुमान के उन मॉडलों को बेहतर बनाने का है, जो भारतीय मानसून की गतिकी को पकड़ने में अक्षम तरीकों के मुकाबले एक या दो हफ्ते पहले ही मौसम में होने वाले अहम बदलावों की चेतावनी देने में सक्षम हों। इस दिशा में और ज्यादा धन एवं विशेषज्ञता लगाये जाने की जरूरत है।
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